Sunday 29 March 2015

जीवन का आधार


निशा की गहराती निद्रा में ,
गूँजा था जब ‘ माँ ‘ का स्वर |
चहुँ दिशाओं में देखा मैंने ,
न पाया कोई , अंदर बाहर न अम्बर ||
      बोली वो पुन: आर्द्र स्वर में ,
      माँ मैं तेरी अजन्मी बेटी |
      तेरे अंतर्मन की व्यथित दशा ,
      पलभर को भी न सोने देती ||
तेरे अश्रु की अविश्रांत धारा ,
जता रही घटना सारी |
कल होगा मेरा दुर्दांत अंत ,
भ्रूण हत्या की है तैयारी ||
      जीवन के अंकुर का वृष्टिपात किया जिसने ,
      आज वही उस का वज्रपात करने आया है |
      पुत्र की लालसा का थाल सजाकर ,
      मानवता की बली चढ़ाने आया है  ||
माँ क्यों न समझाया तुमने ,
इस निर्मम जग को |
कि, मैं तुम्हारा ही अंश हूँ ,
तुम्हारा ही वंश हूँ ,
अपनी प्रतिभा का परचम सदा लहराया है ,
इसीलिए , मैं रंच भर भी न रंज हूँ ||
      सिसकियों बीच निकली ‘माँ ’ की करुण पुकार ,
      मेरी बेटी आ मैं तुझको कर लूँ भरपूर दुलार |
न लगा अभियोग पिता पर ,
उनका भी क्या दोष है |
बेटी होना इस जग में ,
स्वयं में ही एक शोक है ||
      बेटी फ़िक्र एक नहीं ,
      तू तो चिंता की गठरी है |
      सुबह – शाम न उसके सिवा ,
      न कोई किसी का प्रहरी है |
वहशी गिद्धों की दुनिया में ,
बेटी सुरक्षित है कहाँ ?
दरिंदगी के दलदल से ,
मुक्त हो पाती वो कहाँ ?
      पग – पग पर बेटी चिंता तेरी ,
      चैन न लेने देती है |
      फिर क्यों तू विवश तात को ,
      दोषारोपित करती है |
बोली बेटी , मेरी प्यारी माँ ,
कितनी भोली हो तुम |
चंद घटनाओं की पीड़ा से ,
क्योंकर पीड़ित हो तुम ||
      माँ , क्यों तुम भूल गईं ,
      नारी की विपुल शक्ति को |
      सबको जीवन देने वाली ,
      आदिशक्ति की भक्ति को ||
माता हूँ मैं , जन्मभूमि हूँ मैं ,
दुर्गा हूँ , सिंह की सवारी हूँ मैं |
कल्पना , सानिया और मैरी कॉम ,
नर पर भी भारी हूँ मैं ||
      माँ , स्वयं में विश्वास जगाओ ,
      मेरे जीवन का साज सजाओ |
      मुझको दे दो तुम पूरा आकार ,
      मैं करूँगी तुम्हारा सपना साकार ||
मेरी तुमसे बस यही पुकार ,
मत करना मेरा तिरस्कार |
कर लो मुझको भी भरपूर दुलार ,
दे दो जीवन जीने का अधिकार ||    
      

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