Sunday 14 August 2011

भारत माँ की व्यथा

कतरा - कतरा रक्त का  
                        बहा के पाया था हमने जिसे |
आज वही है दर - बदर , 
                        पूछती शहीदों का हमसे पता ||
कल विदेशी बेड़ियों में थी जो जकड़ी हुई ,
                       आज अपने ही सपूतों के ज़ख्मों से घायल हुई |  
आतंक भ्रष्टाचार ने ,
                        उसकी छाती पर है तांडव किया |
जाति - पाति के भेद ने ,
                        गरिमा को सदा कलंकित किया |
पलायनवादी प्रवृत्ति ने ,
                         ममता को क्षत - विक्षत किया |
और धरा की निर्धन प्रजा को ,
                          मँहगाई ने दण्डित किया ||
हे ! धरा के वीर सपूतों ,
                         देशभक्ति का भाव भरो |
रक्तरंजित हुई धरा को ,
                         स्वर्ण सरसिज से विहसित करो || 

त्वदीयं वस्तु गोविन्दम् तुभ्यमेव समर्पय |


' त्वदीयं वस्तु गोविन्दम् तुभ्यमेव समर्पय | '
प्रातःकालीन उपासना में मुख्यतः सांसारिक जीव ईश्वर का स्मरण करते हुए , हे प्रभु तेरा ही तुझको समर्पित ईश्वरोपासना करता है परन्तु समर्पण का अर्थ जाने बिना मात्र उच्चारण उस भाव को सार्थक नहीं करता | अर्थज्ञान विहीन श्लोक ईश्वर के स्मरण का मात्र एक भ्रम है क्योंकि उसमें भाव नहीं अपितु पाण्डित्य है परन्तु उपासना के लिए भाव आवश्यक है , पाण्डित्य नहीं | सम् + अर्पण संधि ही समर्पण है जिसका शाब्दिक अर्थ है सम् अर्थात सम्पूर्ण , अर्पण अर्थात त्याग | जहाँ सम्पूर्ण त्याग है वहीं समर्पण है | यह त्याग हमारा देश तथा परिवार के प्रति भी होता है परन्तु आध्यात्मिक दृष्टिकोण से यह अर्पण अथवा तर्पण है क्योंकि यहाँ सम्पूर्ण त्याग का लोप है | समर्पण वह उच्चतम कोटि की भावना है जहाँ भक्त लौकिक तथा अलौकिक का त्याग कर स्वयं को पारलौकिक में लीन कर लेता है |
मानव जीवन उस विशाल सागर की भाँति है जिसमें क्षितिज का आभास तो है परन्तु किनारों का अभाव है इसी कारण उसके गर्भ में सदा ही काम , क्रोध , लोभ तथा मोह आदि विकारों की लहरें उठती रहती हैं तथा अनायास ही विध्वंस के लिए तत्पर रहती हैं | इन विनाशकारी लहरों पर विजय प्राप्त किए बिना ईश्वर  के प्रति स्वयं को समर्पित समझना , समर्पण जैसे भाव के प्रति अज्ञानता है | गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से समर्पण की व्याख्या करते हुए मानव को संदेश दिया हैः
' सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज '
अर्थात् संसार की सम्पूर्ण वस्तुओं को त्यागकर केवल मेरी शरण में आओ |
वेदों के अनुसार जब प्रेम तथा श्रद्धा आपस में मिलते हैं तभी भक्ति का उद्गम होता है परन्तु इस संयोजन में जब त्याग का मिश्रण होता है तो भक्ति सर्वोत्कृष्ट रूप ले लेती है और भक्त समर्पित  हो जाता है | परन्तु प्रश्न यह उठता है कि किस प्रकार का त्याग , मात्र भौतिक वस्तुओं का जैसा कि आधुनिक परिवेश में प्रायः दृष्टव्य है कि गृहत्याग कर निर्जन स्थान में बस जाना तथा साध्वी चोंगा धारण कर स्वयं को ईश्वर की कृपा का पात्र मान लेते हैं , नही ! वास्तविक त्यागी वह है जो वस्तुओं का नहीं वरन् सांसारिकता से जोड़ने वाले भावों का त्याग करता है जो जीव स्वयं को काम , क्रोध लोभ तथा मोह आदि भावों से मुक्त कर लेता है वही त्यागी है | विचारणीय तो यह है कि जीव सतत् प्रयासों से भी इन गुणों से मुक्ति पाने में असमर्थ प्रतीत होता है | इन सभी गुणों से मुक्ति पाने में सब से बड़ा बाधक काम है वही क्रोध , मोह तथा लोभ का सूत्रधार है | इच्छाओं की आपूर्ति का शोक तथा पूर्ति का प्रयत्न हमें निरन्तर सांसारिकता से संबंध बनाए रखने को मज़बूर करता है | जीव की कामना अनन्त हैं वह कामना रूपी भँवर में निरन्तर गोते तो लगा सकता है परन्तु निकल नहीं पाता | कामना से इस संसार में कोई अछूता नहीं रहता यदि वह सांसारिक वस्तुओं की कामना से मुक्त हो भी जाता है तो मोक्ष की कामना सदा ही उसे उत्कंठित करती है | विश्वामित्र जैसे साधु भी कामना से अछूते न रहे |
समर्पित जीव की पहचान के विषय में सोचा जाए तो मेरा यही मानना है कि समर्पित सदा ही प्रभु इच्छा के अनुकूल आचरण करता है | उसके साथ अच्छा घटित हो या बुरा वह सभी कुछ ईश्वर को समर्पित कर देता है यही करण है कि उसे सेवक की संज्ञा दी गई है | सेवक मूक . बधिर तथा नेत्रहीन होता है परन्तु एक सच्चा स्वामीभक्त होता है | वह अपने स्वामी का आज्ञापालक होने में आनन्द की अनुभूति तो करता है परन्तु कामना इस आनन्द की भी नहीं करता | यही कारण है कि वह क्रिया को करते हुए भी उसके फल का भोक्ता नहीं होता क्योंकि आज्ञापालक पर क्रिया का आरोप कैसा ?
ऐसा नहीं है कि समर्पण एक असम्भव भाव है बस समर्पण के लिए एक आलोक की आवश्यकता है जिसके लिए हमारे धर्माधिकारी श्रेष्ठ गुरु का आह्वान करते हैं | परन्तु यहाँ मेरा मतभेद है  गुरु के आगे श्रेष्ठ जैसे शब्द की कदापि आवश्यकता नहीं है क्योंकि गुरु परमात्म स्वरूप है जिसके आगे विशेषण का प्रयोग अज्ञानता है | गुरु भाव अपने आप में इतना श्रेष्ठ है कि उसका निरन्तर जाप जीव को सांसारिक तापों से मुक्ति प्रदान कर अलौकिक सुख की अनुभूति करवा देता है | वह स्व तथा पर की अनुभूति से परे परम तत्व में लीन हो जाता  है | अतः गुरु के आशीष , कृपा तथा मार्गदर्शन से ही ईश्वर की प्राप्ति सम्भव है , इसीलिए गुरु के स्थान को सर्वोपरि माना गया है | गुरु के प्रति मन में सदा एक भाव का हिलोर लेना आवश्यक है कि
' मिलता है सच्चा सुख केवल गुरुदेव तुम्हारे चरणों में | ' यही अलौकिक समर्पण का भाव हमारे प्रियतम से हमारा मिलन करवाता  है |