Friday 18 November 2011

भूली बिसरी यादें

   मुड़कर ना देखने वाले एक बार तो देखा होता,
        जाने से पहले , ओ मेरे साथी ! एक बार तो सोचा होता ,
         रस्मों रिवाज़ों को तोड़कर जो मैं तुमसे मिलती रही ,
         ना दोगे साथ एक बार तो जताया होता ,
         तुम्हें चाहने की सज़ा तुमने ही तो दी है ,
मेरे आँसुओं को तुमने एक बार तो देखा होता ,
शिकवा करें क्या उनसे, जिनसे वफा की उम्मीद न हो ,
काश ! तुम्हें चाहने से पहले इक बार तो दिल को रोका होता ||
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वक्त से पहले मुलाकात कहाँ होती है ,
वक्त का खेल है मिलते हैं जुदा हो जाते हैं |
वक्त की बात करो , वक्त खुदा होता है ,
वक्त के हाथ में , हर वक्त छुपा होता है ||
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ज़माना ये किस मोड़ पर आ गया है ,
सितारों से आगे बशर आ गया है |
अजब सनसनाहट सी है ज़िंदगी में ,
किधर का मुसाफिर किधर आ गया है ||

Sunday 30 October 2011

मेरी संसद महान !




मेरी संसद महान !
कम्प्यूटर ने किया कमाल ,
संसद में हुआ धमाल |
प्रश्नकाल का हुआ आरम्भ जो सत्र ,
सभी हुए भय से त्रस्त |
थी सभी की नज़र उसी पर ,
तभी प्रश्न आया लालू पर |
महाशय ! इसके गुण दोषों से अवगत करवाइए |
तभी लालू ने कहा - पहले इसका नाम तो बताइए ||
सभी साधनों में सुंदर ' टर '
नाम है इसका कम्प्यूटर |
लालू ने विश्वास जताया ,
मॉनिटर का व्याख्यान बताया |
अरे.........! हम बोले हैं न
है सब यह एक ही भइया ,
चाहे कहो operater या कहो कम्प्यूटर |
जैसे होता चारा eater ,
वैसा ही है money eater ||
            राबड़ी बैठी दूर वहीं ,
             पल्लू से थी खेल रही |
             जो है कम्प्यूटर का भाग ,
            आप बताओ इसका राज़ |
             लालू हैं मेरे spouse ,
              और मैं उनकी mouse |
               मैं कतरूँगी चारा इतना ,
               बैठा खाए spouse हमारा |
                न बिगड़ेगा कुछ हमारा ,
                जेल जाएगा वही दुबारा ||
तभी ,
एक नए सांसद का भाव उभर कर आया ,
उसने ज्ञान पिटारा खोल दिखाया |
 on line tools पर विश्वास जताकर ,
कम्प्यूटर का एक काण्ड समझाया |
सूर्पनखा ने किया e.mail खरदूषण को ,
वो तो जा पहुँचा लक्ष्मण को ,
लक्ष्मण ने समझा उर्मिला का मेल ,
की chating और शुरु हुआ खेल |
देखकर सूर्पनखा का proposal ,
हुए लक्ष्मण हैरान ,
ताबड़तोड़ दिया जवाब |
fault था कम्प्यूटर का , न हो तुम परेशान |
भेजा है तुम्हारा proposal शादी डॉट कॉम को ,
मिल जाएगा तुम्हारा match आज ही शाम को |
सूर्पनखा को गुस्सा आया ,
लक्ष्मण के जीवन में वायरस फैलाया ,
रावण ने internet से सीता का पता लगाया ,
मारीच को बुलवाकर सीता का हरण करवाया |
राम ने , न खग से पूछा , न मृग से
कितना सरल उपाय अपनाया
खोला enternet पंचवटी में और सीता का पता लगाया |
लंका पर करी चढ़ाई ,
रावण से की लड़ाई |
email से कागभूषण को बुलवाया ,
नागपाश से तभी छुड़वाया
कम्प्यूटर ने ही संजीवनी को search किया ,
उसी ने लक्ष्मण को नव जीवन दिया |
विश्वस्त कम्प्यूटर ने किया राम को आश्वस्त ,
तभी  तो लंका को किया ध्वस्त ||
              धन्य - धन्य भयी कम्प्यूटर भाई ,
               इसकी महिमा सब की समझ में आई |
               संसद में खामोशी छाई,
                कम्प्यूटर की हुई खूब बड़ाई |
यह सब सुनकर सोमनाथ तो हुए निहाल
तभी दिया उन्होंने करारा जवाब |
यह कम्प्यूटर हम सब की जान ,
नई टेक्नोलॉजी की अद्भुत शान ||
हमारे नेताओं में ,
दस में से नौ अज्ञान ,
इस पर भी है , मेरी संसद महान ||


Sunday 14 August 2011

भारत माँ की व्यथा

कतरा - कतरा रक्त का  
                        बहा के पाया था हमने जिसे |
आज वही है दर - बदर , 
                        पूछती शहीदों का हमसे पता ||
कल विदेशी बेड़ियों में थी जो जकड़ी हुई ,
                       आज अपने ही सपूतों के ज़ख्मों से घायल हुई |  
आतंक भ्रष्टाचार ने ,
                        उसकी छाती पर है तांडव किया |
जाति - पाति के भेद ने ,
                        गरिमा को सदा कलंकित किया |
पलायनवादी प्रवृत्ति ने ,
                         ममता को क्षत - विक्षत किया |
और धरा की निर्धन प्रजा को ,
                          मँहगाई ने दण्डित किया ||
हे ! धरा के वीर सपूतों ,
                         देशभक्ति का भाव भरो |
रक्तरंजित हुई धरा को ,
                         स्वर्ण सरसिज से विहसित करो || 

त्वदीयं वस्तु गोविन्दम् तुभ्यमेव समर्पय |


' त्वदीयं वस्तु गोविन्दम् तुभ्यमेव समर्पय | '
प्रातःकालीन उपासना में मुख्यतः सांसारिक जीव ईश्वर का स्मरण करते हुए , हे प्रभु तेरा ही तुझको समर्पित ईश्वरोपासना करता है परन्तु समर्पण का अर्थ जाने बिना मात्र उच्चारण उस भाव को सार्थक नहीं करता | अर्थज्ञान विहीन श्लोक ईश्वर के स्मरण का मात्र एक भ्रम है क्योंकि उसमें भाव नहीं अपितु पाण्डित्य है परन्तु उपासना के लिए भाव आवश्यक है , पाण्डित्य नहीं | सम् + अर्पण संधि ही समर्पण है जिसका शाब्दिक अर्थ है सम् अर्थात सम्पूर्ण , अर्पण अर्थात त्याग | जहाँ सम्पूर्ण त्याग है वहीं समर्पण है | यह त्याग हमारा देश तथा परिवार के प्रति भी होता है परन्तु आध्यात्मिक दृष्टिकोण से यह अर्पण अथवा तर्पण है क्योंकि यहाँ सम्पूर्ण त्याग का लोप है | समर्पण वह उच्चतम कोटि की भावना है जहाँ भक्त लौकिक तथा अलौकिक का त्याग कर स्वयं को पारलौकिक में लीन कर लेता है |
मानव जीवन उस विशाल सागर की भाँति है जिसमें क्षितिज का आभास तो है परन्तु किनारों का अभाव है इसी कारण उसके गर्भ में सदा ही काम , क्रोध , लोभ तथा मोह आदि विकारों की लहरें उठती रहती हैं तथा अनायास ही विध्वंस के लिए तत्पर रहती हैं | इन विनाशकारी लहरों पर विजय प्राप्त किए बिना ईश्वर  के प्रति स्वयं को समर्पित समझना , समर्पण जैसे भाव के प्रति अज्ञानता है | गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से समर्पण की व्याख्या करते हुए मानव को संदेश दिया हैः
' सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज '
अर्थात् संसार की सम्पूर्ण वस्तुओं को त्यागकर केवल मेरी शरण में आओ |
वेदों के अनुसार जब प्रेम तथा श्रद्धा आपस में मिलते हैं तभी भक्ति का उद्गम होता है परन्तु इस संयोजन में जब त्याग का मिश्रण होता है तो भक्ति सर्वोत्कृष्ट रूप ले लेती है और भक्त समर्पित  हो जाता है | परन्तु प्रश्न यह उठता है कि किस प्रकार का त्याग , मात्र भौतिक वस्तुओं का जैसा कि आधुनिक परिवेश में प्रायः दृष्टव्य है कि गृहत्याग कर निर्जन स्थान में बस जाना तथा साध्वी चोंगा धारण कर स्वयं को ईश्वर की कृपा का पात्र मान लेते हैं , नही ! वास्तविक त्यागी वह है जो वस्तुओं का नहीं वरन् सांसारिकता से जोड़ने वाले भावों का त्याग करता है जो जीव स्वयं को काम , क्रोध लोभ तथा मोह आदि भावों से मुक्त कर लेता है वही त्यागी है | विचारणीय तो यह है कि जीव सतत् प्रयासों से भी इन गुणों से मुक्ति पाने में असमर्थ प्रतीत होता है | इन सभी गुणों से मुक्ति पाने में सब से बड़ा बाधक काम है वही क्रोध , मोह तथा लोभ का सूत्रधार है | इच्छाओं की आपूर्ति का शोक तथा पूर्ति का प्रयत्न हमें निरन्तर सांसारिकता से संबंध बनाए रखने को मज़बूर करता है | जीव की कामना अनन्त हैं वह कामना रूपी भँवर में निरन्तर गोते तो लगा सकता है परन्तु निकल नहीं पाता | कामना से इस संसार में कोई अछूता नहीं रहता यदि वह सांसारिक वस्तुओं की कामना से मुक्त हो भी जाता है तो मोक्ष की कामना सदा ही उसे उत्कंठित करती है | विश्वामित्र जैसे साधु भी कामना से अछूते न रहे |
समर्पित जीव की पहचान के विषय में सोचा जाए तो मेरा यही मानना है कि समर्पित सदा ही प्रभु इच्छा के अनुकूल आचरण करता है | उसके साथ अच्छा घटित हो या बुरा वह सभी कुछ ईश्वर को समर्पित कर देता है यही करण है कि उसे सेवक की संज्ञा दी गई है | सेवक मूक . बधिर तथा नेत्रहीन होता है परन्तु एक सच्चा स्वामीभक्त होता है | वह अपने स्वामी का आज्ञापालक होने में आनन्द की अनुभूति तो करता है परन्तु कामना इस आनन्द की भी नहीं करता | यही कारण है कि वह क्रिया को करते हुए भी उसके फल का भोक्ता नहीं होता क्योंकि आज्ञापालक पर क्रिया का आरोप कैसा ?
ऐसा नहीं है कि समर्पण एक असम्भव भाव है बस समर्पण के लिए एक आलोक की आवश्यकता है जिसके लिए हमारे धर्माधिकारी श्रेष्ठ गुरु का आह्वान करते हैं | परन्तु यहाँ मेरा मतभेद है  गुरु के आगे श्रेष्ठ जैसे शब्द की कदापि आवश्यकता नहीं है क्योंकि गुरु परमात्म स्वरूप है जिसके आगे विशेषण का प्रयोग अज्ञानता है | गुरु भाव अपने आप में इतना श्रेष्ठ है कि उसका निरन्तर जाप जीव को सांसारिक तापों से मुक्ति प्रदान कर अलौकिक सुख की अनुभूति करवा देता है | वह स्व तथा पर की अनुभूति से परे परम तत्व में लीन हो जाता  है | अतः गुरु के आशीष , कृपा तथा मार्गदर्शन से ही ईश्वर की प्राप्ति सम्भव है , इसीलिए गुरु के स्थान को सर्वोपरि माना गया है | गुरु के प्रति मन में सदा एक भाव का हिलोर लेना आवश्यक है कि
' मिलता है सच्चा सुख केवल गुरुदेव तुम्हारे चरणों में | ' यही अलौकिक समर्पण का भाव हमारे प्रियतम से हमारा मिलन करवाता  है |    
       

    
    

Wednesday 8 June 2011

सदा प्रतीक्षारत...........‍

काम आया न मेरे महावर का रंग ,
                       गोरे हाथों में मेंहदी लगी रह गई |
आके प्रीतम ने घूँघट न खोला मेरा ,
                         मुख पे चूनर पड़ी की पड़ी रह गई ||
मेरी पूजा में क्या कुछ कमी रह गई ,
                           शीष मंदिर में जाकर झुकाया सदा |
फिर पिया से हमारा मिलन न हुआ ,
                            मन की इच्छा दबी की दबी रह गई ||
मोह माया की चूनर थी मुख पर पड़ी ,
                              काम की आँधी ने उसको उड़ाया सदा |
युग बीत गए तुम न आए पिया ,
                              मन में आशा जगी की जगी रह गई ||
छोड़ जग को पिया तेरा सुमिरन किया ,
                             तेरी छवि को है दिल में बसाया सदा |
फिर पिया की नज़र न हम पर पड़ी ,
                               मन की डोली सजी की सजी रह गई ||
( उस आलौकिक को दिल से गुहार जो विकारों से मुक्त कर एकरूप हो 
जाए | )
 

Tuesday 7 June 2011

दिल का फ़साना

फ़साना बन गया , वो तेरा मुस्कुराना |
तेरी आँखों की मस्ती में , मेरा डूब जाना ||
      निश्छल आँखों में बसा अपनत्व ,
      जब ओट से पुकारता है |
      आँखों के कोनलों से फिसल ,
      गोलक के शून्य से मुसकुराता है
      तब मन विह्वल हो ,
      परम तत्व को पुकारता है ||
तेरी यही अदा , बना इक तराना ,
तेरी आँखों की मस्ती में , मेरा डूब जाना ||
      काफिर थे हम ,
      न घर था न ठिकाना ,
      तेरी रहमोनज़र से ,
      आँखों का मिला इक आशियाना |
      बसी हैं तेरी आँखें ,
      जब से मेरी आँखों में ,
      हर दर्द करे किनारा ,
      ये जग लगे बेगाना  |
      डूबकर इनमें ऐ साकी ,
      स्वर्ग का द्वार लगे पुराना |
तेरी ऐसी ही हस्ती पर फिदा है ज़माना ,
तेरी  आँखों मस्ती में मेरा डूब जाना ||

जीवन का यथार्थ

जीवन का यथार्थ
प्रयास में कमी ,
                 असफलता
धैर्य में कमी ,
                  निराशा
सहनशीलता में कमी ,
                  आक्रोश
आत्मविश्वास में कमी ,
                 घबराहट
ज्ञान में कमी ,
                 जटिलता
विश्वास में कमी ,
                 खेद

Sunday 22 May 2011

ज़ख्मी दिल

 प्रतीक्षा में
भावों की अभिव्यक्ति शब्दातीत है ,
 हर क्षण जीवन का यूँ ही व्यतीत है |
यह भाव भी तुम हो ,
भावों में छुपे घाव भी तुम हो |
हर पल तुम्हें बुलाती हूँ ,
हर साँस एक आह बन पुकारती है  |
काश ! कोई आवाज़ तो सुनते ,
मेरे छुपे घाव तो गिनते |
रोज़ कोई नई बात पूँछते हो ,
ज़ख्म की गहराई को टटोलते हो ,
ज़ख्म के भरने की आशंका से
फिर उसे कुरेदते हो |
ज़ख्म भरता है तो निशान छोड़ता है ,
मेरा ज़ख्म तो मीठा अहसास देता है |
दुनिया में अब न कोई सहारा है ,

बस एक ज़ख्म ही हमारा है |

तलाश



बेचैनियों से घिरी मैं ,
जानकर भी अनजान मैं ,
अज्ञान को समेटे हुए ,
लुभावनी राह पर मैं |
अपने ही अहसासों से अनजान मैं ,
खुद की आकांक्षाओं से घिरी मैं ,
समझकर भी नादान मैं ,
तुम्हारी आँखों से मोहित मैं ,
मधुर - मुस्कान की चाह में मैं ,

प्रेम रूपी सागर में डूबी मैं ,
यादों में सदा खोई हुई मैं ,
बस मिलने को बेकरार  मैं ,
तुममें खो जाने को तैयार मैं ,
सपनों को सच करती हुई मैं ,
' प्रिय ' से मिलने को तैयार मैं ,
अंधकार से खिलते प्रकाश में मैं ,
बस उस शांति की तलाश में मैं |

मन के उद्गार


कुछ कर गुज़रने की आग हमें जीने नहीं देती ,
कुछ न कर पाने का अहसास हमें सोने नहीं देता |
यकीं की चिंगारी अश्क पीने नहीं देती ,
अटल इरादा शिकस्त पर भी रोने नहीं देता ||