महाभारत
के युद्ध के उपरांत जब युधिष्ठिर ने बाणों की शैय्या पर पड़े हुए भीष्म पितामह से
विनम्रतापूर्वक धर्मोपदेश देने के लिए निवेदन किया, तब भीष्म पितामह ने कहा कि नदी
समुद्र तक पहुँचती है तो अपने साथ पानी के अतिरिक्त बड़े-बड़े लंबे पेड़ साथ ले
जाती है| यह देखकर समुद्र ने नदी से प्रश्न किया कि तुम पेड़ों को प्रवाह में ले
आती हो परंतु कोमल बेलों और नाजुक पौधों को क्यों नहीं लाती हो? नदी ने उत्तर दिया
कि जब-जब पानी का बहाव बढ़ता है तब बेलें झुक जाती हैं इसलिए वे बच जाती हैं जबकि
पेड़ तनकर खड़े रहते हैं और इसलिए अपना अस्तित्व खो बैठते हैं| भीष्मपितामह ने कहा,
”युधिष्ठिर! ठीक वैसे ही जो जीवन में विनम्र रहते हैं उनका अस्तित्व कभी समाप्त
नहीं होता|” कितनी जीवन सापेक्ष बात कही गई है, विनम्रता| कहाँ खो गई है, विनम्रता?
बच्चों की क्रोध तथा अहंकार युक्त वाणी ह्रदय को तार-तार करने लगी है| कहा गया है-
‘विद्या ददाति विनयम्|’ यह शिक्षा का कौन-सा रूप है जिससे बच्चों में उग्रता तथा
उद्दंडता दिन–प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है| भारतीय युवा जिन्हें राष्ट्र की शक्ति
माना जाता है, उनका अहंकारी व्यक्तित्व उन्हें पतन के गर्त की ओर ले जाएगा, इसका
अनुमान लगाना कठिन है| हम विनम्रता को कायरता मान चुके हैं. क्योंकि विनम्र
व्यक्ति अंधमहत्वाकांक्षी नहीं होता; लेकिन इसका यह तात्पर्य कदापि नहीं है कि
उसका जीवन में कोई लक्ष्य नहीं होता है | सत्य तो यह है कि हम विनम्रता से पूर्णता
परिचित नहीं हैं| विनम्रता का अर्थ है- “अपनी सीमाओं के अंदर रहना अर्थात अहंकार
मुक्त होकर अपनी सीमा के अंदर रहकर व्यवहार करना, परंतु प्रश्न यह है कि सीमाओं से
हमारा परिचय कौन करवाएगा तथा इन सीमाओं को सुनिश्चित कौन करेगा? पाश्चात्य सभ्यता
के रंग में रंगकर हम स्वयं को पृथक तथा खूबसूरत समझने लगे हैं परंतु अंग्रेज़ी कवि
जोसेफ़ एडिशन ने लिखा है- “विनम्र होना सबसे बड़ी खूबसूरती है|” कहाँ खो गई है
हमारी यह ख़ूबसूरती? हम यह क्यों भूल जाते हैं कि फल से लदा हुआ वृक्ष ही झुका हुआ
होता है इसीप्रकार गुणवान व्यक्ति ही विनम्र होता है| प्रकृति की प्रत्येक वस्तु
हमें विनम्र होने की शिक्षा देती है| जीभ में हड्डी न होने के कारण उसमें माधुर्य,
मृदुता तथा कोमलता होती है इसलिए अंतिम समय तक साथ निभाती है जबकि दाँतों में आरम्भ
से ही कठोरता है इसलिए पीछे आकर, पहले खत्म हो जाते हैं| दाँत कठोरता के कारण
दीर्घजीवी नहीं रहते| इसीप्रकार बेंत या बाँस ले लो, आँधी उनका कुछ नहीं बिगाड़
सकती क्योंकि वह आँधी के समक्ष विनम्रता से झुक जाते हैं जबकि तनकर खड़े रहने वाले
बड़े-बड़े वृक्ष धराशायी हो जाते हैं| ऐसे ही अनेक उदाहरण हैं जिनसे स्पष्ट होता
है कि विनम्रता व्यक्तित्व का आभूषण है |भारतीय संस्कृति में इसी विनम्रता से
जुड़ने के लिए प्रणाम व अभिवादन करने की परंपरा है| बड़ों के समक्ष झुककर आशीर्वाद
लेने की प्रथा है| विनम्रता बनी रहे इसीलिए प्रार्थना, स्तुतियाँ की जाती हैं|
जिसमें मन का अहंकार गलता है, मन धुलता है और हम अधिक विनम्र व कृतज्ञ बनते हैं|
हमारे धर्मग्रंथों का मूल मंत्र है - जो नम्र होकर झुकते हैं, वह ऊपर उठते हैं|’
कबीरदासजी ने भी कहा है-
ऊँचा
पानी न टिकै, नीचै ही ठहराय,
नीचे
होय सा भरि पियैं, ऊँच पियास जाए|
अर्थात
पानी कभी ऊँचाई पर नहीं टिकता, वह नीचे की तरफ बहता है| उसी तरह जिस व्यक्ति को
पानी पीना होता है, उसे गर्दन नीचे करनी पड़ती है| जो अकड़कर ऊँची रखता है, उसे
पानी भी नसीब नहीं होता| इसलिए मैं तो यही कहूँगी कि ऊँचा उठने के लिए पंखों की ज़रूरत
तो पक्षियों को पड़ती है इंसान तो जितना विनम्रता से झुकता है उतना ही वो ऊपर उठ
जाता है| तो फिर क्यों न हम विनम्रता के गुण
को अपनाएँ|
विनम्रता
के अमृत का पान कर,
व्यक्तित्व
का पूर्ण उत्थान कर|
अहंकार
के विष को तजकर,
स्वयं
को देव समान कर||
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