Tuesday 8 April 2014

विरही की पाती

( महाप्रभु चैतन्य के जीवन चरित्र को पढ़ते – पढ़ते जब उनका निर्वाण पक्ष पढ़ रही थी तभी उनकी माँ और पत्नी के वियोग से मेरी आँखें भर आयीं और मन में कुछ भाव प्रस्फुटित हुए उन्हीं को शब्दबंध करने का एक छोटा – सा प्रयास है ये कविता | )   
      

हे वैरागी ! सुन हिय की पाती ,
अश्रु के सन्नाटों में सिमटी है दासी |
   उस दिन जब पाणिग्रहण हुआ था मेरा ,
   मन की अभिक्षिप्त अभिलाषाओं ने ली थी अँगड़ाई ,
   सौभाग्य आभूषणों से सुसज्जित ,
  जीवन की बगिया में घिर आयी थी तरुणाई |
कितना मधुरिम प्रेमाश्रयी था जीवन मेरा ,
प्रेम रस से उत्प्लावित , छूने को गगन घनेरा |
   सुख से आमोदित सूर्य ने ,
   विस्फारित किया था अनुपम प्रकाश |
   तभी विरही आमवस्या से ,
   जीवन बन गया था अभिशाप |
सुनकर निर्वाण का तुम्हारा संकल्प ,
उन्मादित हृदय हुआ था विकल |
   ज्ञात था हृदयारविंद को ,
   भोर के प्रहरी के साथ ही ,
   त्याग मुझे तुम हो जाओगे मुक्त |
तुम्हें बाँधे रहने की अभिलाषा से ,
   पकड़ चरण पड़ी रही रात्रि पर्यन्त |
पर भावी होती बड़ी प्रबल ,
होनहार जुटा लेता साधन सकल |
   अभिशापित है रात्रि का वह अंतिम प्रहर ,
   जब गाढ़ निद्रा ने अपना अधिकार जमाया था ,
   और तुमने इस पल को सुअवसर समझ ,
   गृहस्थ जीवन से किया किनारा था |
हाय ! मुझ अबला को तुम किसके सहारे छोड़ गए ,
माँ के प्रति अपने कर्त्तव्यों को भी क्या तुम भूल गए ?
   इन उपालम्भों को रह मौन तुमने स्वीकारा था ,
   और मुझ अबला को विषण्णता का गरल क्या खूब पिलाया था ?
त्याग – वैराग्य की कसौटी पर खरा उतर ,
तुमने मोह - माया की मुक्ति का संदेश दिया |
और मुझ परित्यक्ता ने इस निर्मम जग की
हेयता से भरपूर दोषारोपण के शूल सहे |
   जगती के ललचाए नेत्रों ने जब – जब ,
   घृणित दृष्टिपात किया |
   आर्तनाद गूँजा मन में ,
   असहय पीड़ा का भान हुआ |
हाय ! प्रियवर न तुमने सोचा ,
क्या बीतेगी उस परित्यक्ता पर ,
जिसको ब्याह ले आए थे तुम ,
दूर करने अपनी रिक्तता को |
   हे वैरागी वर्षोंवर्ष यूँ ही बीत गए ,
   आए न सुध लेने को तुम ,
   क्या उस कोमल कांता की सुश्रुषा भूल गए ?
हे वैरागी ! देवों के तुम दूत बन ,
प्रेम भक्ति रस पाते हो ,
और मैं परिदग्धा इन क्षणिकाओं में ,
अश्रुग्रन्थि पर रोके आँसू ,
एकाकीपन का गरल पिए जाती हूँ |
   अब जीवन के अंतिम क्षण में ,
   पुकार रही तुम्हें चूनर धानी |
   दे - दो बस एक अंतिम दर्शन ,
   व्याकुल है तुम्हारे चरणों की दासी  |



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