Tuesday, 17 January 2023

 

नेपाल विमान हादसे से मन अत्यंत व्यथित हुआ अत: ह्रदय की वेदना को शब्दबद्ध करने का प्रयास किया गया है -

हाय! मन

आशाओं के लिबास में लिपटा

मदमस्त ये मन

आकांक्षाओं की पेंग भरता,

अपने-अपने आशियाने को तज

निकलता ये मन

किसी को किसी से मिलने की ललक

तो कोई लुत्फ़ उठाने को बेकरार सैरगाहों की

आसमान को छूने की आशाओं में निकलता

कामगार ये मन

अपने में लीन हँसते-खिलखिलाते

मिलते-मिलाते

कुछ सुनते, कुछ सुनाते

कट रहा होता है ये सुहाना सफर

बादलों की ओट से निकलता,

आकाश की उँचाइयों को छूता

प्रकृति के मनोरम दृश्यों को

अपने अंतर्मन में समेटता

निर्द्वन्द्व ये मन

भविष्य के गर्भ में छुपे उस हादसे से,

टूट जाता है छूट जाता है

हताशा के कोनलों को तोड़

बिखर जाता है

हताश ये मन

किसी की अदना-सी लापरवाही का

दरिंदों की साजिश का

या फिर भाग्य की कारस्तानी का

शिकार हो जाता है

बेचारा ये मन

अरमानों की बलि चढ़ता

सृष्टा की सृष्टि से विरक्त हो

आत्मतत्व में विलीन हो जाता है

मनचला ये मन

अपनों के दर्द का कारण बन

बीते हुए लम्हों की कसक का

हेतु मात्र रह जाता है

निश्छल ये मन

 हाय रे! ये मन

 

 

 


Sunday, 16 December 2018

ख्वाहिशें हों पूरी, चाहे परवरिश रहे अधूरी

                                         



        इस गुलिस्तां में तब्दीली हो रही,
      नैतिकता धुआँ, अशिष्टता रोबीली हो रही|
      दिल टूट जाता है मंज़र देखकर,
      परवरिश के दरख़्तों पर ख्वाहिशें नशीली हो रही||
जीवन के समस्त गुणों, ऐश्वर्यों, समृद्धियों तथा वैभव की आधारशिला चरित्र तथा नैतिकता है| समय के तीव्रगामी कदमों के साथ नैतिक मूल्यों का ह्रास तथा अशिष्टता का पाश मज़बूत होता जा रहा है| अशिष्टता क्यों पनप रही है ? इस पर गंभीर मंथन की आवश्यकता है| अशिष्टता के लिए हम युवा पीढ़ी को भी पूरी तरह दोषी नहीं ठहरा सकते| इसके लिए परिवार तथा सामाजिक वातावरण के साथ मीडिया भी जिम्मेदार है| माता-पिता अपनी संतान से कोई-ना-कोई उम्मीद रखते हैं| जो मुकाम माता-पिता हासिल नहीं कर पाए; उसमें अपने बच्चों का भविष्य देखने का अरमान; लगभग सभी अभिभावकों का होता है| इसमें कोई बुराई तो नहीं है परंतु महत्वाकांक्षा का जो बीज वह अपने बच्चों में अंकुरित करना चाहते हैं उसका रोपण तथा पोषण करते हुए उसकी परवरिश में नैतिक मूल्यों को कहीं न कहीं अनदेखा कर देते हैं| पूंजीवादी मानसिकता से ग्रसित अभिभावक अपने बच्चों को डॉक्टर, इंजीनियर तथा वैज्ञानिक जैसे प्रतिष्ठित पद प्राप्त करने का मार्गदर्शन तो करते हैं परंतु श्रेष्ठ नागरिक बनाने की संकल्पना उनके मन-मस्तिष्क में ही विलीन हो जाती है| मीडिया भी बच्चों पर गहरा प्रभाव डालता है| फिल्मों तथा टी॰वी॰ पर दिखाए जाने वाले बिग बॉस, रोडीज जैसे अनेक कार्यक्रम अभद्र भाषा व व्यवहार की सीख देते हैं| आज कक्षा का केंद्र वह छात्र होता है जो अपनी अशिष्टता से मनोरंजन का साधन बनता है| वह ‘कूल पर्सनैलिटी’ की संज्ञा से नवाज़ा जाता है| कुछ सामाजिक तथ्य यह प्रमाणित करते हैं कि बच्चों में नैतिकता का अभाव दिन – प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है | अभी हाल ही में एक उत्कृष्ट भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थान (IIT) से उत्तीर्ण युवा जो कि प्रतिष्ठित बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत था; उसने अज्ञात कारणों से आत्महत्या कर ली| उसने व्यावसायिक क्षेत्र में तो सफलता हासिल कर ली परंतु जीवन की विकट परिस्थितियों का सामना करने का हौसला वह नहीं सीख पाया या कहिए कि उसे सिखाया नहीं गया और वह जीवन से हार गया| रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डी॰आर॰डी॰ओ॰) की इकाई ब्रह्मोस की एयरोस्पेस यूनिट में कार्यरत 27 वर्षीय वैज्ञानिक को भारत के अति महत्वपूर्ण ब्रह्मोस से जुड़ी संवेदनशील जानकारी को पाकिस्तान एवं अमेरिका से साझा करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया| यह वैज्ञानिक रुड़की जैसे एक प्रतिष्ठित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान से स्वर्ण पद प्राप्त कुशाग्र छात्र था; उसे युवा वैज्ञानिक पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था| अभिभावकों की अपेक्षाओं में खरा उतरने वाला युवा आई॰एस॰आई॰ द्वारा हनीट्रैप जैसे मामले में फँस जाता है| अकल्पनीय तो यह है कि माता-पिता उसके इस कृत्य से अनभिज्ञ थे| कमी कहाँ रह गई ? यह विचारणीय है|
आज युवाओं का आहार, विहार तथा विचार दूषित होता जा रहा है उनमें सही-गलत परखने की क्षमता खोती जा रही है| मनमोहक आकर्षणों में फँसकर दिग्भ्रमित युवा अपनी महत्वाकांक्षा को तो फलित कर लेते हैं परंतु अधूरी परवरिश उन्हें पथभ्रष्ट कर देती है| तीन साल का बच्चा अनभिज्ञ होता है| जब वह संस्कार, नैतिकता व शिष्टता के बारे में जानने योग्य होता है तो उसे स्कूल भेजा जाता है। उसके बाद वह ट्यूशन पढ़ने के लिए चला जाता है। जब तक वह माता-पिता के पास आता है तो थककर सोने के लिए चला जाता है। अभिभावक कुछ पूछने की कोशिश भी करें तो वह यह कहकर टाल देता है कि अभी थक चुका हूँ। दूसरी सुबह फिर वही दिनचर्या शुरू हो जाती है। बच्चा क्या कर रहा है, क्या पढ़ व सीख रहा है, हमें मालूम ही नहीं होता। समय के साथ वह इतना बड़ा हो जाता है कि वह संस्कारविहीन हो जाता है। शिष्टाचार की उससे कोई उम्मीद नहीं की जा सकती| युवाओं का रुष्ट और रूखा व्यवहार, बड़ों के प्रति अनादर, कुतर्क व मनमानी यह सब दर्शाता है कि युवाओं में नैतिक मूल्यों का स्तर किस हद तक गिर चुका है। आज परवरिश के मायने बदल गए हैं| अच्छा कमाएँ, अच्छा खाएँ, जीवन में कभी पैसे की कमी न आए; यही सबका ख्वाब होता है| बच्चा पैसे कमाने की ललक में अनैतिकता के भँवर में फँसता चला जाता है|
स्वामी दयानंद जी ने कहा था- "हमें ऐसी शिक्षा चाहिए जिससे चरित्र का निर्माण हो, मन की शक्ति बढ़े, बुद्धि का विकास हो और मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा हो सके|" इन आदर्शों को भूल हम केवल भौतिक उन्नति की प्रतिस्पर्धा में भावी पीढ़ी को झोंक रहे हैं| उनमें नैतिक मूल्यों के उत्थान हेतु हमारे प्रयास नगण्य हैं| एक बारहवीं कक्षा का छात्र अपनी ही माँँ तथा बहन का कत्ल कर देता है; कभी आक्रोश में अपने ही अध्यापक पर हथियार उठा लेता है तो परीक्षा स्थानांतरित करने हेतु छोटे से बच्चे का कत्ल कर देता है| ऐसे कितने ही उदाहरण देखने को मिल जाएँँगे, जो यह दर्शाते हैं कि युवा वर्ग खुद में नैतिक मूल्यों को कितना गिरा चुके हैं| दुख तो इस बात का होता है कि शिष्टाचार, संस्कार व नैतिकता की उन्हें पहचान ही नहीं और न ही इसको मानने को तैयार हैं| यदि अध्यापक तथा अभिभावक उन्हें जीवन- मूल्यों की शिक्षा देने का प्रयास करते हैं तो वह मॉरल लेक्चरिंंग' कहकर किनारा कर जाते हैं| आज की युवा पीढ़ी तो पागल हाथी की तरह नैतिकता व संस्कारों को भुलाकर अपने रास्ते में आने वाली हर चीज को रोंदते हुए चली जा रही है| वे इस बात से बेखबर हैंं कि जब वह ज़मीन पर गिरेंगे तो क्या हाल होगा? यह सिर्फ नैतिक मूल्यों की कमी के कारण ही हो रहा है जोकि अधूरी परवरिश का ही परिणाम है| 

युवाओं की वर्तमान परिस्थिति से यह स्पष्ट है कि अभिभावकों को ख्वाहिशों के अतिरिक्त उनके चारित्रिक उत्थान पर भी विशेष ध्यान रखना चाहिए| कहीं ऐसा ना हो कि भौतिक उन्नति के भँवर में गोते खाते-खाते हम उन्हें जीवन जीने की कला सिखाना ही भूल जाएँ और वे जीवन में किसी असफलता से अवसाद के शिकार हो जाएँ|
                        ख्वाहिशों के समंदर में,
                        किश्तियाँ कहीं गुमराह न हों|
                        उँगलियाँ उठें आप पर,
                        परवरिश आपकी बदनाम न हो||

Wednesday, 12 December 2018

विनम्रता बने जीवन का आधार

महाभारत के युद्ध के उपरांत जब युधिष्ठिर ने बाणों की शैय्या पर पड़े हुए भीष्म पितामह से विनम्रतापूर्वक धर्मोपदेश देने के लिए निवेदन किया, तब भीष्म पितामह ने कहा कि नदी समुद्र तक पहुँचती है तो अपने साथ पानी के अतिरिक्त बड़े-बड़े लंबे पेड़ साथ ले जाती है| यह देखकर समुद्र ने नदी से प्रश्न किया कि तुम पेड़ों को प्रवाह में ले आती हो परंतु कोमल बेलों और नाजुक पौधों को क्यों नहीं लाती हो? नदी ने उत्तर दिया कि जब-जब पानी का बहाव बढ़ता है तब बेलें झुक जाती हैं इसलिए वे बच जाती हैं जबकि पेड़ तनकर खड़े रहते हैं और इसलिए अपना अस्तित्व खो बैठते हैं| भीष्मपितामह ने कहा, ”युधिष्ठिर! ठीक वैसे ही जो जीवन में विनम्र रहते हैं उनका अस्तित्व कभी समाप्त नहीं होता|” कितनी जीवन सापेक्ष बात कही गई है, विनम्रता| कहाँ खो गई है, विनम्रता? बच्चों की क्रोध तथा अहंकार युक्त वाणी ह्रदय को तार-तार करने लगी है| कहा गया है- ‘विद्या ददाति विनयम्|’ यह शिक्षा का कौन-सा रूप है जिससे बच्चों में उग्रता तथा उद्दंडता दिन–प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है| भारतीय युवा जिन्हें राष्ट्र की शक्ति माना जाता है, उनका अहंकारी व्यक्तित्व उन्हें पतन के गर्त की ओर ले जाएगा, इसका अनुमान लगाना कठिन है| हम विनम्रता को कायरता मान चुके हैं. क्योंकि विनम्र व्यक्ति अंधमहत्वाकांक्षी नहीं होता; लेकिन इसका यह तात्पर्य कदापि नहीं है कि उसका जीवन में कोई लक्ष्य नहीं होता है | सत्य तो यह है कि हम विनम्रता से पूर्णता परिचित नहीं हैं| विनम्रता का अर्थ है- “अपनी सीमाओं के अंदर रहना अर्थात अहंकार मुक्त होकर अपनी सीमा के अंदर रहकर व्यवहार करना, परंतु प्रश्न यह है कि सीमाओं से हमारा परिचय कौन करवाएगा तथा इन सीमाओं को सुनिश्चित कौन करेगा? पाश्चात्य सभ्यता के रंग में रंगकर हम स्वयं को पृथक तथा खूबसूरत समझने लगे हैं परंतु अंग्रेज़ी कवि जोसेफ़ एडिशन ने लिखा है- “विनम्र होना सबसे बड़ी खूबसूरती है|” कहाँ खो गई है हमारी यह ख़ूबसूरती? हम यह क्यों भूल जाते हैं कि फल से लदा हुआ वृक्ष ही झुका हुआ होता है इसीप्रकार गुणवान व्यक्ति ही विनम्र होता है| प्रकृति की प्रत्येक वस्तु हमें विनम्र होने की शिक्षा देती है| जीभ में हड्डी न होने के कारण उसमें माधुर्य, मृदुता तथा कोमलता होती है इसलिए अंतिम समय तक साथ निभाती है जबकि दाँतों में आरम्भ से ही कठोरता है इसलिए पीछे आकर, पहले खत्म हो जाते हैं| दाँत कठोरता के कारण दीर्घजीवी नहीं रहते| इसीप्रकार बेंत या बाँस ले लो, आँधी उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती क्योंकि वह आँधी के समक्ष विनम्रता से झुक जाते हैं जबकि तनकर खड़े रहने वाले बड़े-बड़े वृक्ष धराशायी हो जाते हैं| ऐसे ही अनेक उदाहरण हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि विनम्रता व्यक्तित्व का आभूषण है |भारतीय संस्कृति में इसी विनम्रता से जुड़ने के लिए प्रणाम व अभिवादन करने की परंपरा है| बड़ों के समक्ष झुककर आशीर्वाद लेने की प्रथा है| विनम्रता बनी रहे इसीलिए प्रार्थना, स्तुतियाँ की जाती हैं| जिसमें मन का अहंकार गलता है, मन धुलता है और हम अधिक विनम्र व कृतज्ञ बनते हैं| हमारे धर्मग्रंथों का मूल मंत्र है - जो नम्र होकर झुकते हैं, वह ऊपर उठते हैं|’ कबीरदासजी ने भी कहा है-
ऊँचा पानी न टिकै, नीचै ही ठहराय,
नीचे होय सा भरि पियैं, ऊँच पियास जाए|
अर्थात पानी कभी ऊँचाई पर नहीं टिकता, वह नीचे की तरफ बहता है| उसी तरह जिस व्यक्ति को पानी पीना होता है, उसे गर्दन नीचे करनी पड़ती है| जो अकड़कर ऊँची रखता है, उसे पानी भी नसीब नहीं होता| इसलिए मैं तो यही कहूँगी कि ऊँचा उठने के लिए पंखों की ज़रूरत तो पक्षियों को पड़ती है इंसान तो जितना विनम्रता से झुकता है उतना ही वो ऊपर उठ जाता है| तो फिर क्यों न हम  विनम्रता के गुण को अपनाएँ|
विनम्रता के अमृत का पान कर,
व्यक्तित्व का पूर्ण उत्थान कर|
अहंकार के विष को तजकर,
स्वयं को देव समान कर||

Sunday, 29 March 2015

जीवन का आधार


निशा की गहराती निद्रा में ,
गूँजा था जब ‘ माँ ‘ का स्वर |
चहुँ दिशाओं में देखा मैंने ,
न पाया कोई , अंदर बाहर न अम्बर ||
      बोली वो पुन: आर्द्र स्वर में ,
      माँ मैं तेरी अजन्मी बेटी |
      तेरे अंतर्मन की व्यथित दशा ,
      पलभर को भी न सोने देती ||
तेरे अश्रु की अविश्रांत धारा ,
जता रही घटना सारी |
कल होगा मेरा दुर्दांत अंत ,
भ्रूण हत्या की है तैयारी ||
      जीवन के अंकुर का वृष्टिपात किया जिसने ,
      आज वही उस का वज्रपात करने आया है |
      पुत्र की लालसा का थाल सजाकर ,
      मानवता की बली चढ़ाने आया है  ||
माँ क्यों न समझाया तुमने ,
इस निर्मम जग को |
कि, मैं तुम्हारा ही अंश हूँ ,
तुम्हारा ही वंश हूँ ,
अपनी प्रतिभा का परचम सदा लहराया है ,
इसीलिए , मैं रंच भर भी न रंज हूँ ||
      सिसकियों बीच निकली ‘माँ ’ की करुण पुकार ,
      मेरी बेटी आ मैं तुझको कर लूँ भरपूर दुलार |
न लगा अभियोग पिता पर ,
उनका भी क्या दोष है |
बेटी होना इस जग में ,
स्वयं में ही एक शोक है ||
      बेटी फ़िक्र एक नहीं ,
      तू तो चिंता की गठरी है |
      सुबह – शाम न उसके सिवा ,
      न कोई किसी का प्रहरी है |
वहशी गिद्धों की दुनिया में ,
बेटी सुरक्षित है कहाँ ?
दरिंदगी के दलदल से ,
मुक्त हो पाती वो कहाँ ?
      पग – पग पर बेटी चिंता तेरी ,
      चैन न लेने देती है |
      फिर क्यों तू विवश तात को ,
      दोषारोपित करती है |
बोली बेटी , मेरी प्यारी माँ ,
कितनी भोली हो तुम |
चंद घटनाओं की पीड़ा से ,
क्योंकर पीड़ित हो तुम ||
      माँ , क्यों तुम भूल गईं ,
      नारी की विपुल शक्ति को |
      सबको जीवन देने वाली ,
      आदिशक्ति की भक्ति को ||
माता हूँ मैं , जन्मभूमि हूँ मैं ,
दुर्गा हूँ , सिंह की सवारी हूँ मैं |
कल्पना , सानिया और मैरी कॉम ,
नर पर भी भारी हूँ मैं ||
      माँ , स्वयं में विश्वास जगाओ ,
      मेरे जीवन का साज सजाओ |
      मुझको दे दो तुम पूरा आकार ,
      मैं करूँगी तुम्हारा सपना साकार ||
मेरी तुमसे बस यही पुकार ,
मत करना मेरा तिरस्कार |
कर लो मुझको भी भरपूर दुलार ,
दे दो जीवन जीने का अधिकार ||    
      

Saturday, 28 March 2015

पिया मिलन की आस



मन वीणा के झनके तार ,
पिया मिलन की आई रात |                     
सकुचाती , इठलाती पहुँची द्वार ,
पिया मिलन की मन में आस ||
      उनके रंग में रंग जाऊँगी ,
      दूजा रंग न मन भाऊँगी |
      अधरों पर अधरों की लाली ,
      खिल मन में इठलाऊँगी ||
आज रति ने छेड़ी मधुतान ,
पिया मिलन की मन में आस ||
      गलबाहों का हार पहनाकर ,
      मंद – मंद मुसकाऊँगी |
      श्वासों की मणियों से ,
      भावों को खूब सजाऊँगी ||
आज आया जीवन में मधुमास ,
पिया मिलन की मन में आस ||
      तन – मन की दूरी का ,
      हर आयाम मिटाउँगी |
      प्रेमपाश में डूब पिया के ,
      अवगुंठित भावों को पंख लगाऊँगी ||
आज अहसासों ने खोली पाल ,
पिया मिलन की मन में आस ||
      मन के अहसासों की डोली ,
      पहुँची जब पिय के द्वार |
      अरमानों का ताज सजा ,
      ढूँढ़ रही उनको निगाह ||
कहाँ छुपे निष्ठुर तुम आज ,
पिया मिलन की मन में आस ||
      मादक द्रव्यों की मादकता ,
ले डूबी , तुम्हें किया निढ़ाल |
मेरी पदचापों से भी ,
न टूटा तुम्हारा ये भ्रमजाल |
पल – पल में बीती जाती है रात ,
पिया मिलन की मन में आस ||
      शुभ्र चाँदनी की सिमटी बाहें ,
      रश्मिरथी ने किया प्रकाश |
      पक्षियों की हलचल में ,
      टूटा मन वीणा का तार |
आज बिखरा मेरे सपनों का जाल ,
पिया मिलन की मन में आस ||
      हाय ! प्रियतम तनिक धैर्य धरा होता ,
      मधुशाला की हाला को तज |
      अपने जीवन में ,
      मेरा स्वप्न बुना होता |
      तो , प्रेम का रसपान कराती ,
      जीवन में मधुमास बन आती |
      खुद की अभिलाषाओं से दूर ,
      तेरा हर स्वप्न सजाती ||
अब व्याकुल मन ये करे पुकार ,
पिया मिलन की मिट गई आस ||